माँ के साथ बिताये दिन वो आज भी पलक भिगाते हैं,
जब याद वो लम्हे आते हैं तो खुद को हम वहां पाते हैं.
जहाँ बड़ी बहन से झड़पों को माँ बीच में आ रुक्वाती थी,
जो पड़े कोई मुश्किल हमको माँ पलक झपक सुलझाती थी.
जहाँ अच्छे नम्बर मिलने पर माँ प्यार से सर सहलाती थी,
जहाँ भूख लगे तो माँ हमको पकवान बनाके खिलाती थी,
जहाँ चोट लगे हमको लेकिन उस दर्द को माँ महसूस करे,
और मरहम बनकर आँचल में वो हमको हमेशा छुपाती थी.
और आज जब हम उस मोड़ पे हैं, जहाँ हम भी माँ कहलाते हैं,
और हम भी वही सब करते हैं, जो माँ कभी किया करती थी.
जो पहले माँ की कही बाते हमें अटपटी सी लगती थी,
हम आज उन्ही बातों को अपने बच्चों को सिखलाते हैं.
पर आज वो माँ उस मोड़ पे है जहाँ उसे हमारी ज़रुरत है,
तो क्यूँ हमने अपनी ही एक अलग दुनिया बनाई है.
हम तो थे माँ की पूरी दुनिया, क्यूँ माँ नहीं हमारी दुनिया में,
कहीं अनजाने ही हमने तो माँ को ठेस नहीं पहुंचाई है.
This quick sketch was done on an A4 size paper with charcoal only.
I wanted to draw something which compliments this poem so I thought of this sketch to be an appropriate one.
Hope u all like what you see and read.
Cheers!!!